ऑनलाइन शिक्षाः स्कूली शिक्षा का विकल्प नहीं



शिक्षा इंसान को ऐसी समझ, मूल्य और कौशल देती है जो उसे इस जटिल समाज में ठीक से जीवन चलाने में सक्षम बनाते हैं। इंसान को सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान व गरिमामय जीवन जीने के लिए शिक्षा एक महत्वपूर्ण धुरी के रूप में काम करती है, पर महत्वपूर्ण यह है कि शिक्षा किस स्तर की गुणवत्ता के साथ प्राप्त की जाए। भारतीय संविधान में भी अनुच्छेद 45 के अनुसार बाल अधिकारों को पूर्ण संरक्षण और मान्यता प्रदान करते हुए उनकी देख-रेख और शिक्षा व सुरक्षा संबंधी प्रावधानों की व्यवस्था की। हमारे संविधान का अनुच्छेद 21 क, 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा का हक प्रदान करता है। वहीं अनुच्छेद 39 च हर बालक को एक स्वतंत्र और गरिमापूर्ण वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाओं का अधिकार प्रदान करता है। बच्चों को किसी भी तरह के शोषण से उनकी सुरक्षा एवं संरक्षा करता है।

अतः हमारे जीवन में शिक्षा का बहुत महत्व है। यह शिक्षा सभी को गुणवत्तापूर्ण मिले यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है क्योंकि इसके स्तर विविध हो सकते हैं। बच्चों के सीखने का स्तर भी अलग-अलग हो सकता है। इसके कारणों में जाएं तो मुख्य तौर पर शिक्षा का उपलब्ध वातावरण और पढ़ाने के तौर-तरीके पर यह निर्भर करता है। इसमें हम मान सकते हैं कि एक बालक जब जन्मता है तो अपने साथ कुछ जन्मजात क्षमताओं को लेकर दुनिया में आता है, उन क्षमताओं को हम कल्पना, याद रखना, तर्क, विश्लेषण करने के रूप में जानते हैं। इसका मतलब हुआ कि शिक्षण के लिए काम में ली जाने वाली प्रक्रिया कुछ खास प्रकार की हो सकती है। उन प्रक्रियाओं के माध्यम से एक अच्छी शिक्षा मिल सकती है। इसी के साथ हमें यह भी समझने की आवश्यकता हो सकती है कि बालक सीखता कैसे है? और बालक की प्रवृत्ति किस तरह की होती है? ताकि हम इन सभी का ध्यान रखते हुए एक अच्छी प्रक्रिया अपना सकते हैं।

शिक्षक बच्चे को एक सहज वातावरण देता है। कोई बात एकबार कहने पर समझ में नहीं आयी तो शिक्षक बार- बार दोहराता है, कितना सीखा उससे आगे फिर समझाना आरम्भ करता है। बालक जो समझ में नहीं आया वह शिक्षक से जानने का प्रयास करता है। बच्चे ने क्या किया, वह सही है या नहीं उसे दिखाने वह शिक्षक के पास जाता है और जब शिक्षक कहता है कि सही है तो बालक एक खुशी के साथ अपनी जगह वापस आता है और फिर पूरे मनोयोग काम करने में लग जाता है। बाल प्रवृत्ति होती है कि वह एक जगह ज्यादा समय तक टिक नहीं सकता है। बच्चा कुछ समय बाद काम में नयापन चाहता है। बच्चा अपनी गति से ही सीखता है। बच्चा अपने प्रयासों से ही सीखता है। बच्चा अपने पांचों ज्ञानेंद्रियों का उपयोग करते हुए सीखता है। पर जब यह प्रक्रिया ठीक से नहीं चलाएंगे तो सीखने के प्रति बच्चे का रुझान कम होता जाएगा।

कोरोना महामारी के बाद में जिस तरह की परिस्थितियां बन रही है उसमें ऑन लाइन शिक्षण प्रक्रिया चलायी जा रही है, इसमें ज्ञान वाणी नाम का चैनल दूरदर्शन के माध्यम से चलाया जा रहा है। इसमें यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है कि हर बालक इस चैनल को देखे और सीखे। पर अभी तक के अनुभव यह कहते हैं कि इसमें शहरी बच्चों के अलावा ग्रामीण एवं हाशिये पर रहे परिवारों के बच्चे इसका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसका कारण यह है कि हर घर में टीवी नहीं है। गांवों में बिजली हमेशा रहती नहीं है। बच्चों के पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है। अभिभावक इतने सजग नहीं है कि बच्चों को ये सुविधाएं उपलब्ध करवा सकें। ग्रामीण क्षेत्र में घरों में बच्चों पर खेत से चारा लाना, जानवरों की देखभाल में मदद करना, छोटे भाई-बहनों को संभालना और यहां तक कि माता-पिता के मजदूरी पर चले जाने पर खाना बनाने तक का बोझ आमतौर पर होता है।



कई स्कूल वाले वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए शिक्षण कार्य कर रहे हैं लेकिन अभावहीनता की वही स्थिति इन ग्रामीण बच्चों के समक्ष उपस्थित होती है। उनके पास मोबाइल फोन या इंटरनेट कनेक्शन की सुविधा नहीं है। जिससे इस शिक्षा का लाभ उनतक नहीं पहुंचता है। अतः ऑनलाइन शिक्षा एक विकल्प तो हो सकता है पर यह स्कूली प्रक्रिया की जगह नहीं ले सकता। दूसरी बात यह कि एक बालक जब किसी दबाव में टेलीविजन और मोबाइल की स्क्रीन पर लगातार देखेगा तो उनकी आंखों पर इसका बेहद ख़राब असर पड़ सकता है। बच्चों की शिक्षण के प्रति अरुचि भी पैदा हो सकती है।

अब यहां सवाल यह है कि हमारे संविधान के मुताबिक 6-14 वर्ष तक के बच्चों की आरम्भिक शिक्षा को सुनिश्चित करना है, पर ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली में उसका यह अधिकार मिलना मुश्किल है। इसके लिए पूरे शिक्षा तंत्र और समाज को मिलकर कोई तरीका निकालने की जरूरत है जहां कोरोना से बचाव भी सुनिश्चित हो सके और बच्चों की पढ़ाई भी बाधित न हो। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली को ठीक से लागू किये जाने से पूर्व इसमें आने वाली चुनौतियों और सभी बच्चों तक इसकी पहुंच बनाने का विश्लेषण करना होगा।

मुरलीधर गुर्जर
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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