स्वतंत्रता
के बाद देश में यदि कुछ तय है तो वह है कुछ खास प्रदेशों के निश्चित
इलाकों में बाढ़ की विभीषका। यह बात अलग है कि किसी साल यह ज्यादा तबाही
मचाती है तो कभी थोड़ा बहुत ताण्डव कर शांत हो जाती है। बाढ़ को लेकर
बिहार, असम, प. बंगाल और कुछ अन्य इलाकों में दो महीनों का हाहाकर झेलने
वाले वहां के लोग और सरकारें इन्हीं मामलों पर 10 महीनों के लिए ऐसे बेकार
हो जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं! इसके लिए दोषी भले हम नेपाल या चीन को
ठहराएं लेकिन सबसे बड़ी हकीकत यही है कि व्यवस्था कहें या नीति निर्धारण,
यह लगातार लापरवाहियों का नतीजा है।
जुलाई-अगस्त के बाद यही बाढ़ पीड़ित
इसे नियति मान जहां फिर से अपनी गृहस्थी सजाने की फिक्र में अगले दस महीने
यूं जुट जाएंगे जैसे कुछ हुआ ही नहीं। वहीं सरकारें भी नीचे से ऊपर तक
कागजी घोड़े दौड़ा बाढ़ पर हकीकत में दिखने वाली कार्रवाइयों से इतर
चिट्ठी, पत्री, ई-मेल भेज-भेजकर अपनी सक्रियता दिखाने लग जाती है। इस बीच
फिर जुलाई-अगस्त आ जाता है। यानी दिखावे की व्यस्तता के बीच सितम्बर से जून
कब बीत जाएगा, किसी को पता नहीं चलता और फिर दो महीने वही पुराना हाहाकार
हरा हो जाएगा। बाढ़ की विभीषिका का यही सच है।
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बाढ़
का एक सच यह भी कि यहां नदियों के किनारों पर ही जबरदस्त अतिक्रमण है
जिससे रास्ता भटकी नदियां उसी इलाके में बाढ़ का कारण बन जाती हैं। यकीनन
नदियां तो अपनी जगह हैं लेकिन तटों पर कब्जों ने चाल जरूर बदल दी। शायद इस
कारण भी सरकारें कई बार बाढ़ रोक पाने में विफल हो जाती हैं। बिहार में अभी
जहां कोई दर्जन भर जिलों के साथ लगभग 7 से 8 सौ गांव बुरी तरह से बाढ़ की
चपेट में हैं वहीं अगले कुछ दिनों का रेड एलर्ट है। सात जिले ऐसे हैं जो
नेपाल से सटे हैं जिनमें पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, सीतामढ़ी, मधुबनी,
सुपौल, अररिया और किशनगंज शामिल हैं। चूंकि नेपाल पहाड़ी इलाका है इसलिए जब
वहां बारिश होती है तो पानी नदियों से नीचे आकर नेपाल के मैदानी इलाकों
में भर जाता है।
खेती की जमीन के लिए जंगल पहले ही काट दिए गए हैं ऐसे में
कोई रोक नहीं होने से कई नदियां जो नेपाल के पहाड़ी इलाकों से निकलकर
मैदानी इलाकों में होते हुए वहां से और नीचे जाकर जैसे ही बिहार में प्रवेश
करती हैं, बाढ़ के हालात विकराल हो जाते हैं। जंगल होते तो पेड़ होते,
पेड़ होते तो मिट्टी होती, मिट्टी होती तो पानी का बहाव भी रुकता और कटाव
भी लेकिन ऐसा कुछ है नहीं इसलिए पानी सीधे भारत में आकर तबाही मचाता है। इस
दिशा में बहुत ज्यादा काम की जरूरत है लेकिन सच यह है कि असल शुरुआत ही
नहीं हुई है जिससे 73 सालों से यह समस्या साल दर साल बढ़ती ही जा रही है।
जहां
नेपाल और भारत के बीच अब छोटे-छोटे विवाद भी बड़े हो रहे हैं वहीं सैकड़ों
बरस पुराने आत्मीय रिश्ते भी खत्म हो रहे हैं जिससे योजनाएं धरी रह जाती
हैं। गण्डक नदी जो दोनों देशों में बहती है, उसके गेट खुलते ही भारत में
तबाही कोई नई कहानी नहीं है। यह भी सच है कि तरक्की के लिहाज से बने बांध
ही सिरदर्द बने। ऐसा ही कुछ प. बंगाल में है जहां जानकारों की चेतावनी की
अनदेखी की गई थी। अंग्रेजों ने पहले दामोदर नदी को नियंत्रित करने खातिर
1854 में उसके दोनों और बांध बनाए लेकिन समझ आते ही 1869 में तोड़ भी दिया।
उन्हें आभास हो गया कि प्रकृति से छेड़छाड़ ठीक नहीं। फिर तो भारत में
रहने तक किसी नदी को बांधने का प्रयास नहीं किया। एक बात और जो शायद कम ही
लोग जानते हों कि फरक्का बैराज और दामोदर घाटी परियोजना विरोधी एक विलक्षण
प्रतिभाशाली इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य थे।
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योजना की रूपरेखा आते ही, 40
वर्ष पहले ही उन्होंने वो प्रभावी और अकाट्य तर्क दिए कि कोई काट तो नहीं
सका अलबत्ता उन्हें बर्खास्त जरूर कर दिया गया। अब उनकी बातें, हू-ब-हू सच
हो रही हैं। उन्होंने एक लेख में चेताया था कि दामोदर परियोजना से पश्चिम
बंगाल के पानी को निकालने वाली हुगली प्रभावित होगी जिससे भयंकर बाढ़ आएगी
और कलकत्ता बंदरगाह पर बड़े जलपोत नहीं आ पाएंगे। इससे नदी के मुहाने जमने
वाली मिट्टी साफ नहीं हो पाएगी और गाद जमेगी तथा जहां-तहां टापू बनेंगे।
नतीजतन प्राकृतिक तौर पर दो-तीन दिन चलने वाली बाढ़ महीनों रहेगी। सबकुछ सच
निकला बल्कि स्थितियां और भी बदतर हुईं।
असम
में भी इसबार बाढ़ की स्थिति भयावह है। 33 में से 30 जिले इसकी चपेट में
हैं। ब्रह्मपुत्र समेत तमाम नदियां खतरे के निशान से ऊपर है। राष्ट्रीय
आपदा मोचन यानी एनडीआरएफ की 12 टीमें यहां हैं। वहीं संयुक्त राष्ट्र
बाढ़ग्रस्त असम में राहत कार्यों भारत की सहायता को तैयार है। बिहार में भी
एनडीआरएफ की19 टीमें तैनात हैं। उधर यूनिसेफ ने बीते गुरुवार को कहा कि
जहां अकेले भारत में बाढ़ की ताजा हालत से बिहार,असम, ओडिशा, गुजरात,
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, केरल, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल
में 60 लाख से ज्यादा प्रभावित हैं जिनमें जिसमें 24 लाख बच्चे हैं। एक
बेहद चिन्ताजनक स्थिति यह भी है कि इसबार मध्य जुलाई भारी बारिश हुई।
दक्षिण एशिया में यूनिसेफ की क्षेत्रीय निदेशक जीन गफ ने जबरदस्त चिंता
जताई है। ऐसे वक्त आई तबाही जिसमें गुजरते वक्त की भारी मानसूनी बारिश, बाढ़
और भूस्खलन ने 24 लाख बच्चों और उनके परिवारों की दुनिया उजाड़ दी, दोहरी
मार जैसी है क्योंकि जब दुनिया कोविड-19 महामारी और इसकी रोकथाम में जुटी
थी कि तभी यह दूसरी समस्या बड़ी मुसीबत बन आ खड़ी हुई।
असम
की नियति देखिए। सितंबर 2015 की एक रिपोर्ट बताती है कि 1954 से लेकर 2015
के बीच बाढ़ की वजह से असम में 3 हजार 800 वर्ग किमी की खेती की जमीन
बर्बाद हो गई। मतलब 61 साल में बाढ़ के कारण असम में जितनी खेतिहर जमीन
बर्बाद हुई है, वो गोवा जैसे राज्य के क्षेत्रफल से ज्यादा है। समझा जा
सकता है किजिस राज्य के 75 प्रतिशत लोग सिर्फ खेती पर निर्भर हों वहां यह
रोजी-रोटी पर कैसा असर पड़ा होगा! 2010 से 2015 यानी केवल 5 बरस में 880 से
ज्यादा गांव तबाह हुए और 36 हजार 981 परिवार बेघर हुए। नतीजतन रहने को जगह
कम हो गई।
भीषण बारिश वहां की बड़ी और स्थायी समस्या है।
भले इसबार बाढ़ ने तीन राज्यों में खासी तबाही मचाई हो लेकिन यह सच है कि
दुनिया में बाढ़ से होने वाली मौतों में 20 फीसदी अकेले भारत में होती है।
दरअसल भारत दुनिया का ऐसा देश है जिसमें हर साल कहीं न कहीं विकराल बाढ़
आती है। जहां गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु नदी से बिहार, प. बंगाल असम, पूर्वी
उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, पंजाब एवं हरियाणा में जबरदस्त बाढ़ आती है
वहीं ओड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात,आन्ध्र प्रदेश और राजस्थान भी
कई बार बाढ़ से प्रभावित हो जाते हैं। औसतन 400 लाख हेक्टेयर जैसा बड़ा
क्षेत्रपल हर साल बाढ़ के खतरे से ग्रस्त रहता है और औसतन 77 लाख हेक्टेयर
एरिया में बाढ़ आती है। इससे अमूमन 35 लाख हेक्टेयर की फसलें बरबाद होती
हैं। इसबार बाढ़ की विकरालता और मिस मैच टाइमिंग से यह एरिया काफी बड़ा
होने जा रहा है।
दरअसल
मौजूदा हालात में बजाए बड़ी नदियों पर बड़े-बड़े बांध के छोटी व सहायक
नदियों यहां तक कि गांवों के नालों पर जगह-जगह जलाशय और चेक डैम बनें ताकि
बारिश का उपयोग भी हो और नियंत्रित भी किया जा सके। इससे जहां नदियों का
कटाव रुकेगा, वहीं बड़ी नदियों में बाढ़ के हालात भी कमेंगे। हालाकि इस
दिशा में काम तो हो रहा है और आजकल गांव-गांव में स्टाप डैम और चेक डैम
ग्राम पंचायतें बनवा भी रही हैं लेकिन इसकी हकीकत को भी परखना होगा कि
मनरेगा व दूसरी योजनाओं से बनने वाले ये डैम, कागजों में तो बन जाते हैं
लेकिन वास्तव में ये कितने कारगर हैं? इस तरह की कोशिशों से दूसरे कई लाभ
भी हैं जो अलग लिखा जाने वाला विषय है।
अब तो अक्षांतर, देशांतर तथा
सैटेलाइट तकनीक से निर्माण स्थल की सटीकता और गुणवत्ता को जांचने की तकनीक
विकसित कर निर्माणों की जांच के लिए देशव्यापी आकस्मिक यानी कहीं भी मुआयने
की सटीक व्यवस्था भी हो सकती है जिससे निर्माण एजेंसियों में भ्रष्टाचार
को लेकर खौफ रहे ताकि निर्माण का काम पुख्ता हो, ऐसा न होने पर कागजों में
चेक-स्टाप डैम यूं ही अनचेक होकर भ्रष्टाचार की बलिवेदी पर चढ़ बाढ़ को
बढ़ावा देते रहेंगे। यदि बाढ़ पर काबू की कोशिशें कामयाब नहीं हुईं तो 2050
तक भारत की आधी आबादी के रहन-सहन के स्तर में जबरदस्त गिरावट होगी। अभी 30
बरस का वक्त है जो कम नहीं है। इसके लिए अभी से कमर कसकर पारदर्शी
व्यवस्था करनी होगी। व्यवस्थाएं सुधरीं तो बाढ़ नियंत्रण सुधार कोई बड़ी
चुनौती नहीं होगी और भारत के लिए बड़ी उपलब्धि होगी।
ऋतुपर्ण दवे
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