मेरी भाषा का दिन जीवन का अनुचिंतन : सुशोभित

मेरी भाषा का दिन 
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एक ऐसी भाषा होती, जो कानों पर बजती। जैसे पीपल के पत्तों पर बजती है बरखा।

फिर एक ऐसी भाषा होती, जो एक पंक्ति में मोती की तरह टंक जाती। जैसे भुट्‌टों में पंक्तिबद्ध टंके हों दाने।

एक भाषा अंगुली पकड़ लेती और रास्ता दिखाती। 

दूसरी, विपथ का नाम पुकार बैठती। कोई वाक्य अपने विन्यास से भटक जाता तो भाषा ही संकेत करती।

किंतु यह सब इतनी सरलता से नहीं होता। भाषा तभी अपने रहस्य आपके सम्मुख खोलती, जब आप अपना अंत:स्तल भाषा के सामने उघारते। प्रेम की भी यही परिभाषा है, परस्पर की भी, समवाय की भी, कि जहां दो एक-दूसरे के सम्मुख हों, वहां वे स्वयं को उघारें।

सौ साल जीकर जीवन-विवेक आ जाता, किंतु सभी को नहीं। उन्हीं को जो सौ साल जीते और उस जीये का अनुचिंतन भी करते। सौ साल भाषा का रियाज़ करके भाषा का भी विवेक आ ही जाता, किंतु सभी को नहीं। उन्हीं को जो बही में अक्षर नहीं टांकते, काग़ज़ पर यों क़लम चलाते, जैसे यह उनके होने का हलफ़नामा है।

एक अनुचित शब्द लज्जित करता था। एक ग़ैरज़रूरी वाक्य हानि का संकेत करता। पूरी की पूरी संरचना सुंदर बन पड़ती, तब भी मनोनुकूल न होने पर वह खेद से भर देती। मन विषण्ण हो आता। कि यह सबको तो रुचा किंतु मैंने ही इसको भला क्यों रचा? मुझको यह क्यूँ कहना था? अधैर्य भी भाषा में ही व्यंजित होता, उसी से व्यक्त होता।

एक भाषा ऐसी होती, जो आदमक़द तस्वीर बन जाती। 

आप जैसे आईने के सामने खड़े होकर उसमें अपना रूप निहारते। वैसी भाषा! और वो कभी आपसे झूठ नहीं बोलती। एक झूठा चेहरा आपको नहीं लौटाती। एक सीमा के बाद वह स्वयं नहीं बनती-संवरती!

भाषा में कही गई चीज़ें सरल नहीं। उनसे संस्कार बनता है। संसार के समस्त संकल्प उन संस्कारों का परिणाम हैं, जो पहले किन्हीं भाषाओं में रूपायित हुए थे। फिर, वे साकार हुए! सगुण की छवि निर्मित हुई। छवि की छांह दूर तक गिरी। इस तरह मैं व्याप गया। मेरा संसार एक परिव्याप्ति में गूंज उठा। यह मेरा सुख भी था, यह मेरा शोक भी। जीवन में जो-जो राग है, मरण में वही-वही क्लेश, यह विवेक भी तब मुझमें भाषा से ही आया।

तब, तुला अडोल हो रही। कांटा मध्य में टिक गया। चीज़ें सम पर आ गईं। मैं तो वायु से भरा ग़ुब्बारा था, मेरी भाषा ने मुझे धरती पर बांधा। मुझे जड़ दी। इस जड़ को मैंने ही सींचा था। उसने सत्वर मेरी रक्षा की।

मैंने कविता लिखी, और भाषा को यत्नपूर्वक एक संगीत में साधा।

कहानी सुनाई तो उसमें दूसरी चेतना चली आई। मैं जन से जुड़ा। इस असम्भवता ने भी मुझे सुख ही दिया। 

फिर मैं लिखने बैठ गया वृत्तांत और संस्मरण। फिर, निरा गद्य, जैसे कि यह। भाषा मेरी मार्गदर्शिका बन गई। उसने पल-पल पर मुझको बतलाया कि अब क्या, अब कैसे, और अब क्यूं?

फिर यह भी, अब यह क्यूं नहीं। और मैंने तुरंत उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन किया, और स्वयं का लिखा बार-बार मिटाया। और स्वयं को मिटने से बचाया! 

संसार में हज़ार स्वांग रचो, कौन रोकता है? भाषा में स्वांग नहीं रच सकोगे, पकड़े जाओगे। एक चतुर अनेकार्थ चुन लोगे तो एकान्त में वह प्रश्न करेगा। भाषा को वस्त्र की तरह जब तक उतार ही न दो, शांति नहीं है। किंतु देह का वस्त्र भी जब छूट रहेगा, तब भी ये भाषा शेष रह जाएगी, इस सूचना को अपने भीतर कहां पर रखोगे, बंधु?

इसी का चिंतन करो। भाषा सितार है। उसको साधो। उसका भरसक रियाज़ करो! वह धैर्य और परिश्रम मांगती है। जो कहते हैं कि युगानुकूल भाषा भ्रष्ट होना चाहती है, उन्हें कहने दो। युग भाषा को नहीं रचता, भाषा युग को रचती है। और जिस युग में मैं जीवित हूं, वही मेरा युग भी हो, वही तुम्हारा भी, यह आवश्यक नहीं। मैं प्रागैतिहासिक भी हो सकता हूँ! मैं प्राचीन भी हो सकता हूँ! 

अपना युग चुनो। वहीं से भाषा मिलेगी। वहीं से सत्य।
और तब, अपने सम्मुख रखो वह निकष, जो प्रतिप्रश्न से संकोच न करता हो, आत्ममंथन से जो भयभीत नहीं। अपने सम्मुख रखो अपनी भाषा।

आज मेरी भाषा का दिन है!

मैं स्वयं को इस दिवस की शुभकामनाएं सौंपूं। और मैं यह ऐसे प्रकट व सुचित्त होकर करूं, कि संसार इससे जुड़ जाए। इसमें सम्मिलित हो। मेरी भाषा तुम्हारा सत्य बन जाए। तुम्हारा सत्य मेरा पुण्य।

और ऐसे ही धुरी पर घूमती रहे यह धैर्य धन्य धरणी!

सुशोभित

[ तस्वीर : पवन सिंह बैश ]

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