देशी ईस्ट इंडिया कम्पनी और काले अंग्रेज


- सचिन चतुर्वेदी

इतिहास गवाह है कि एक समय था जब बुन्देलखण्ड पानीदार था। पानीदारी यहां की संस्कृति थी, लोगों की चेतना थी, शक्ति थी, या यूं कहें कि बुन्देलों से ज्यादा पानीदार कोई था ही नहीं। वे बुन्देले जो शत्रु की नजर टेढ़ी होते ही उसके शरीर से खून की एक-एक बूंद निचोड़ लेते थे, वे बुन्देले जो अपने स्वाभिमान के लिए अपनी जान तक न्यौछावर करने के लिए तैयार रहते थे। स्वाभिमान ही तो पानीदारी थी, जो बुन्देलों की आत्मा का आभूषण था। पर वो पानीदारी कहां गयी?

बुन्देलखण्ड में यह कहावत बड़ी प्रसिद्ध है -

बुन्देलखण्ड की सुनो कहानी, बुन्देलों की बानी में

पानीदार यहां का घोड़ा, आग यहां के पानी में

आल्हा-ऊदल के बुन्देलखण्ड में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान को भी हार झेलनी पड़ी थी, ऐसे थे बुन्देले। पर आज बुन्देलों की वीरता को किसकी नजर लग गयी? बुन्देलों की पानीदारी कहां गयी? दुश्मन यहां आकर लूटपाट कर रहा है और बुन्देले देख रहे हैं? नदियों का सीना छलनी कर यहां की धरती का पानी सुखाकर बुन्देलखण्ड के दुश्मन अट्टहास कर रहे हैं और बुन्देले चुप हैं? आल्हा-ऊदल का तो घोड़ा भी पानीदार था, पर यहां तो आंख का पानी ही खत्म है। आखिर क्या हुआ कि बुन्देले संघर्ष करना भूल गये?

काले अंगे्रजों की काली करतूत

अंग्रेजों ने जब इस देश पर अपनी बुरी नजर डाली तो यहां एक कम्पनी स्थापित की और उसे नाम दिया, ईस्ट इंडिया कम्पनी। इस कम्पनी ने यहां जमकर लूटपाट की, यहां के धन-धान्य, वैभव-सम्पदा सब कुछ लूटा। सैकड़ों वर्ष की लूट के बाद यहां के बाशिंदों ने आजादी का स्वप्न देखना शुरू किया तब कहीं जाकर आजादी मिल पाई। पर गुलामी की आदत अभी भी हमारे अन्दर अपना घर बनाये हुए है, तभी तो हमें अपने आस-पास के दुश्मन दिखाई ही नहीं दे रहे। वे दुश्मन जो दिन रात यहां का  ‘लाल सोना’ और ‘काला सोना’ लूटने में लगे हैं। बुन्देले यहां की ‘बालू’ को ‘लाल सोना’ और ‘पत्थर’ को ‘काला सोना’ कहते हैं।

केन नदी हो या बेतवा, ‘लाल सोने’ के अवैध खनन की भेंट चढ़ चुकी ये दोनों नदियां अब लुप्तप्राय ही हैं। जल्दी कुछ न किया गया तो इन्हें भी सरस्वती की उपाधि देनी पड़ जायेगी। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी की भांति ही हमारे देश में कुछ लुटेरे हैं जिन्हें बुन्देलखण्ड की अस्मिता से कोई लेना देना नहीं है। इन काले अंग्रेजों को स्थानीय खबरनवीस ‘बालू माफिया’ के नाम से सुशोभित करते हैं। पर इन माफियाओं को तो बस पैसा चाहिए। गोरे अंग्रेजों ने पीला सोना लूटा था तो वहीं काले अंग्रेज लाल सोना लूटने में लगे हैं। इस पर भी आश्चर्य यह है कि हम खबर तो खूब देखते हैं पर प्रतिक्रिया नहीं करते। ये हमारी कमी नहीं बुजदिली है। हम आज भी देशी ईस्ट इंडिया कम्पनी के मानसिक गुलाम हैं। स्थानीय मीडिया में भी कमोवेश कई ऐसे चेहरे हैं जो इस लाल सोने की दलाली करने के लिए ही खबरनवीस बने फिरते हैं। अपनी दलाली से इन्होंने सच्चे पत्रकार और पूरी पत्रकारिता को कठघरे में खड़ा कर दिया है। लालच में ये सब इतने अंधे हो चुके हैं कि नदियों का छलनी सीना इन्हें द्रवित नहीं करता। क्यों कि पैसे के आगे इन्हें कुछ दिखता ही नहीं।

यहां के पहाड़, यानि ‘काला सोना’ जिनका पत्थर मकान निर्माण के लिए सर्वोत्तम कहा जाता है, उसे भी ये काले अंग्रेज लूटने में लगे हैं। आप कभी जाकर देखिये, चित्रकूट से लेकर बांदा, महोबा, हमीरपुर, झांसी और ललितपुर तक ये काले अंग्रेज धरती का सीना चीरकर पहाड़ को गहरी खाई में तब्दील कर चुके हैं। यहां से इस बहुमूल्य खनिज सम्पदा का इस कदर दोहन हो रहा है कि बहुत ही जल्द यहां पहाड़ की जगह गहरी खाईयां और नदियों की जगह सफाचट मैदान दिखाई देगा। यानि बुन्देलखण्ड तेजी से रेगिस्तान बनने की दिशा में अग्रसर है। पर हमें क्या? हमें तो इतनी भी फुर्सत नहीं कि अपने शहर और वातावरण को बचाने के लिए एक छोटा सा भी कदम उठा लें। नौकरी पेशा के पास जो समय बचता है वह परिवार के साथ मौजमस्ती करते हुए बीतता है तो वहीं बिजनेसमैन किसी भी ग्राहक को खाली नहीं जाने देना चाहता। मतलब पैसा और मस्ती, यही प्राथमिकता हैं हमारी। पर इन्हीं सब के बीच मरती हुई केन-बेतवा और खत्म होते पहाड़ों का रहनुमा बनने की किसी को कोई फुर्सत नहीं है। 

अब तो हालात यह हो चुके हैं कि नदियों की बीच जलधारा में पोकलैंड मशीनों से प्रतिदिन लाखों मीट्रिक टन बालू को निकाला गया जिससे यह बालू खत्म हो गयी है। धरती और पानी के बीच यही बालू अवरोध का काम करती है जो पानी को धरती में समाने से रोकती है और किसी भी नदी के लिए बालू उसका जीवन होती है। जब इसे अन्धाधुंध निकाला जायेगा तो नदियां कैसे रहेंगी? इस अन्धाधुंध खनन से नदियां गड्ढों में तब्दील हो चुकी हैं। नदियों को तो मारने की जैसे होड़ ही लगी है। नदियों का जीवन खत्म होने से आसपास का भूजल भी समाप्त हो जाता है। इसकी वजह से प्राकृतिक तालाब और झीलें तक सूख जाती हैं। जिनके यहां बोरिंग है उनसे पता चलेगा कि पिछले सालों में उन्होंने कितनी दफा बोर को और गहरा कराया है।

ऐसा नहीं है कि इन सबमें सरकार बिल्कुल पाक साफ है? अगर देखा जाये तो हमारे नीति निर्धारक यानि सरकार को सब पता है कि इस अन्धाधुंध दोहन से आखिर क्या होने वाला है। कब तक ये नदियां मर जायेंगी, ये भी सरकार को पता है। पर क्या है न ! सरकार को भी तो इस अन्धाधुंध दोहन से तगड़ी रॉयल्टी मिलती है। ऊपर से लेकर नीचे तक सबका रेट तय है, हिस्सेदारी तय है। तभी तो सब के सब मुंह सिले हमारी केन और बेतवा की तबाही को नजरअंदाज कर रहे हैं।

पर बुन्देले होने के नाते हमारी चिन्ता यही है कि आखिर कब तक? कब तक हमारी जीवन दायिनी नदियों का सीना छलनी करते रहेंगे ये काले अंग्रेज? अब इन काले अंग्रेजों को इस बुन्देली धरा से खदेड़ना ही होगा, वरना पहले तो ये हमारी नदियां खत्म करेंगे और फिर इन नदियों के अभाव में हम खत्म होंगे। पर ये सब अकेले सम्भव नहीं है। अब सोचना आपको है, ये आवाज भी कोई एक नहीं उठायेगा, कोई एक व्यक्ति संघर्ष करने नहीं आयेगा। न ही कोई आपको इस परिस्थिति से निकालने वाला है। अगर कोई निकालेगा तो सिर्फ आप। जनता को स्वयं इस अप्राकृतिक खनन के लिए आवाज उठानी होगी, संघर्ष करना होगा। अगर अभी नहीं तो कभी नहीं....

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