कृषि कानूनों का विरोध कितना वाजिब


@ अनिल निगम

राजनीतिक दल सोची-समझी रणनीति के तहत किसानों से संबंधित तीन कानूनों का विरोध कर रहे हैं। इनका सबसे बड़ा विरोध इस बात को लेकर था कि सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त कर दिया है। अकाली दल की नेत्री हरसिमरत बादल का केन्द्रीय मंत्री पद से इस्तीफा एक राजनीतिक चाल है। अकाली दल पंजाब में अपने घटते जनाधार से बेहद चिंतित है। इसलिए उन्होंने इस इस्तीफे से पंजाब के किसानों को ये संदेश देने की कोशिश की है कि अकाली दल उनका हितैषी है।


पंजाब और हरियाणा किसानों के गढ़ हैं। सबसे ज्यादा फसल पंजाब में उगती है। कुछ पंजाबी किसान संगठनों ने इन तीनों कानूनों को किसान-विरोधी बताया है और वे इनके विरुद्ध आंदोलन चला रहे हैं। कुछ दूसरे प्रदेशों में भी विरोधी दलों के उकसावे पर किसानों ने धरना-प्रदर्शन किया अथवा ऐसा करने की योजना बना रहे हैं।

निस्संदेह, तीनों कानून किसानों को ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुंचाने के लिए बनाए गए हैं। पहला कानून किसान का उत्पाद, व्यापार एवं विपणन, दूसरा- आवश्यक अधिनियम 1955 में संशोधन और तीसरा अधिनियम कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर बनाया गया है। पूर्व में प्रावधान था कि देश के किसान अपनी फसल बेचने के लिए अनिवार्य रूप से अपनी स्थानीय मंडियों में जाएं और दलालों-आढ़तियों की मदद से अपना खाद्यान्न बेचें। लेकिन अब उनके ऊपर से ये बाध्यता समाप्त हो जाएगी। अब वे अपना माल सीधे बाजार में ले जाकर बेच सकते हैं। कहने का आशय यह है कि किसानों के लिए अब पूरा देश खुल गया है। उनकी निर्भरता मंडियों और आढ़तियों पर खत्म हो जाएगी। जब किसान अपनी फसल स्थानीय मंडियों में बेचते थे तो उनको आढ़तियों या दलालों को कमीशन देना पड़ता था। लेकिन उक्त कानून लागू होने के बाद उनको न मंडी-टैक्स देना पड़ेगा और न ही आढ़तियों को कमीशन। चूंकि अब वे अपने माल को देश की किसी भी मंडी या व्यापारी को बेचने को स्वतंत्र होंगे, इसलिए उन्हें फसल की कीमतें ज्यादा मिलेंगी।

इसके बावजूद कुछ विपक्षी दलों ने किसानों को उकसाया कि नए कानून पूरी तरह से किसान विरोधी हैं और इससे किसानों का बहुत बड़ा नुकसान होने वाला है। तर्क दिया गया कि फसल अब औने-पौने दामों पर बिका करेगी, क्योंकि बाजार तो बाजार है। बाज़ार में दाम उठते-गिरते रहते हैं। परन्तु मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने से किसानों की अधिक सुरक्षा रहती है। किसानों के इस डर को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने संसद में दूर कर दिया। उन्होंने बताया कि किसानों को उनकी फसल का न्यूनतम मूल्य हर हाल में मिलेगा। इसको सरकार समाप्त नहीं करेगी।


भारत में आज भी 50 फीसदी से अधिक आबादी कृषि कार्य में लगी हुई है। लेकिन भारत की जीडीपी में कृषि का योगदान सिर्फ 18 फीसदी योगदान है। यह अत्यंत विचारणीय बिंदु है। पिछले वर्ष किए गए एक अध्ययन के मुताबिक भारत में 10.07 करोड़ किसानों में से 52.5 प्रतिशत कर्ज़ में दबे हुए हैं। वर्ष 2017 में एक किसान परिवार की कुल मासिक आय 8,931 रुपये थी। वास्तव में किसानों को अपने उत्पाद का सही मूल्य इसलिए नहीं मिल पाता क्योंंकि वे बिचौलियों की मर्जी पर निर्भर हैं। हर किसान को खुला बाजार मिलने से उन्हें अपना माल बेचने की आजादी होगी। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कुछ राजनीतिक दल किसानों को एक पक्षीय तस्वीर दिखा रहे हैं।

सरकार की मंशा किसानों को उनकी उपज का अच्छा मूल्य दिलाने की है। यह कानून किसानों के लिए काफी फायदेमंद सिद्ध हो सकता है। हालांकि इस बात का खतरा जरूर है कि उनकी फसलों पर देश के बड़े पूंजीपति अग्रिम कब्जा कर बाजार में ज्यादा महंगा बेचने लगें। ऐसा भी संभव है कि वे किसानों को अग्रिम पैसा देकर फसलों की खरीददारी पहले ही सुनिश्चित कर लें। यह खतरा तो रहेगा। पर इसमें भी फायदा किसानों का ही होगा। इस नई व्यवस्था में किसानों का कोई अहित न होने पाए, इसके लिए सरकार एक सशक्त मॉनिटरिंग सिस्टम अवश्य बनाना चाहिए।

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